और यहीं एक और साल बीत गया।
लोगों ने पूछा कि क्या ही बदला,
मैंने हँस के जवाब दिया,
मेरी तो जिंदगी ही बदल गई,
कुछ पाया तो कुछ खोया।
जो खोया उसको बयाँ नहीं कर सकती,
लेकिन जो मिला उसका बखान भी नहीं कर सकती।
मैं तो उस गीली मिट्टी की तरह थी जिसे घड़ा बनना था।
कहाँ खबर थी इस जमाने की, लोगों के अनगिनत पैमानों की,
अपने घर से निकली तो जाना आसमान को,
खुद ही लड़खड़ाई तो सीखा उड़ने के साहस को।
वो पल आज भी याद है मुझे,
घर की याद आना और भीगी आँखें लेके सो जाना।
बातों बातों में डर जाना और
अपना डर किसी से ना बता पाना।
हर बार हारना और फिर थम जाना,
मन में एक आवाज़ गूँजना
और हिम्मत ना हारना।
आज भी अकेले थोड़ा रो लेती हूँ,
खुश होने का नाटक कर लेती हूँ,
अपनी तकलीफें छुपा लेती हूँ,
तो कुछ बातें मन में रख लेती हूँ।
अब डर नहीं लगता,
सच बोलूँ तो फरक नहीं पड़ता,
अब तो अनजान लोगों में ही अपनों को ढूँढ लिया है,
यहीं पे एक घर सा बना लिया है।
हाँ, माना कि ये घर "घर" नहीं,
घर तो कामयाबी के सपने के साथ ही छूट गया,
ये तो बस यादें हैं और यादें हैं।।
Comments