हम कहते हैं अक्सर,
"बस, अब जाना है घर",
पर एक सवाल है मेरा,
क्या वहीं है घर जहाँ हो, रैन-बसेरा..।
कोई कहे घर वही ,
जहाँ बाबा कि डाँट
और माँ का प्यार मिले,
किसी का घर वहाँ जहाँ उसके बच्चे पले,
किसी ने सड़कों को भी अपनाया है,
तो कोई दस मंज़िल कि इमारत में भी खुश ना रह पाया है,
कोई अपने प्रेमी में देखे घर अपना,
तो कोई अपना सारा प्रेम समेट देखे उस घर का सपना।
घर के भले ही अलग मायने अलग अर्थ हो,
मैं कहुँ घर वही जिसके बिना जीवन निरर्थ हो,
घर वहाँ जहाँ तुम तुम, मैं मैं रह सकें,
तुम कह सको जो तुम्हें कहना हो,
तुम रह सको जैसे तुम्हें रहना हो,
जहाँ दिल को सुकून और मन को आराम मिले,
जहाँ सारी परेशानियों को कुछ देर ही सही पर विराम मिले..।
बड़े हिम्मत वाले लोग जो छोड़े घर अपना,
बस एक आस कि पूरा हो जाए कोई एक सपना,
फ़िर घिसते घिसते जीवन दे निकाल,
मैं सोचूँ ये भी कि इनको ना हो कोई मलाल?
क्या घर की याद इन्हें आती नहीं,
क्या ये लम्बी रातें इन्हें खाती नहीं,
आख़िर ये चैन से सोते कैसे हैं,
और बिन माँ कि गोद ये रोते कैसे हैं..?
कोई कहे अरसा हो गया चैन कि नींद आई नहीं,
ना जाने कबसे माँ के हाथ कि रोटी खाई नहीं,
अब रोते भी ऐसे है कि ना ले कोई सुन,
बस खोये है बना के अपनी हीं कोई धुन।
सपनों के पीछे भागते-भागते, सब कुछ कितना पीछे छोड़ आये हम,
क्या अपनी खुशियों का गला खुद ही मरोड़ आये हम,
अब बस हो गया, ये दौड़ना ये भागना ये गिरना और उड़ना
कि अब मैं थोड़ा ठहरना चाहती हूँ,
भले ही कुछ दिन के लिए ही सही,
पर अब मैं घर वापस जाना चाहती हूँ।
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