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आकलन

  • Hitakshi Jain
  • Aug 18, 2021
  • 1 min read

अपनी ही उलझनों में,

कभी खुद से दूर हो जाती हूँ,

किसी को ना बता सकूँ,

उस वक्त से भी गुज़रती हूँ

उस वक्त से भी गुज़रती हूँ।


खुद से पूछ -पूछकर थक जाती हूँ,

मैं सही हूँ, या गलत,

फिर उसी मोड़ पर आ जाती हूँ,

खुद को फिर अकेला पाती हूँ।


किसी और की गलतियों पर भी,

खुद ही से हार जाती हूँ।

किताबों के साये से,

फिर स्वयं को समझा पाती हूँ।


कागज़ों के जमघट में,

शब्दों के रतानाकर से,

फिर अपनी फँसी नैया को

पार लगा ले जाती हूँ।


बस एक पन्ना खोलकर,

संकट के किसी भी काल में,

अपनी सारी समस्याओं का

वास्तविक आकलन कर जाती हूँ।


किताबों के अवलंब से,

यूँ ही जीवन की नाव को,

फिर तट तक खींच लाती हूँ

सत्य के धरातल पर फिर लौट आती हूँ

सत्य के धरातल पर फिर लौट आती हूँ |

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