बचपन के वो खेल गजब के ,
बहुत अनमोल वो कहानी है,
उस भारी बस्ते में जो सिमट, कर रह गई ऐसी वो कहानी है ।
महक उन नई किताबों की,
जो मुझे वापस बचपन में ले जाती है,
कुछ धुंधली सी यादें है ,
वो मेरे स्कूल की कहानी है।
जब रंग बिरंगी दुनिया को मैने किताबो में देखा था,
जोड़ , घटाव , गुना , भाग कर मैने अंकों से खेला था,
देख कर कुछ मुश्किल सवाल उन्हीं अंकों से डरा था,
जब दुनिया बहुत छोटी थी मेरी,
जैसे मेरे घर से स्कूल तक का रास्ता था।
न जाने अपने अध्यापकों से कितनी बार पिटा था,
पहला विश्वा युद्ध कब हुआ था, ये मुझे याद तक नहीं था,
विज्ञान में हाथ तंग था,
पर गणित मेरा यार था,
भूगोल तो पढ़ता ही नहीं था मैं,
और इतिहास में तो बहुत ही बुरा हाल था।
जब मार पड़ने से पहले हम,
अपने हाथों को गरम कर लिया करते थे,
क्लास में ही बैठ अपना टिफिन खत्म कर लिया करते थे,
अपनी टेबल पर नाम लिखना मेरा सबसे जरूरी काम था,
प्रिंसिपल के हर लंबे भाषण पर बेहोशी का नाटक करना तो जैसे आम था।
फिक्र नहीं थी जब दुनिया – दारी की,
ये कहानी है मेरे बचपन की यारी की,
लंबा होमवर्क और ढेर सारे यादों को घर लाने की,
हँसते-खेलते बीत गई वो जिंदगानी थी।
लिखना चाहूँ तो पूरा लिख भी न पाऊँ ऐसी ये कहानी है,
उस भारी बस्ते में जो सिमट कर रह गई,
ये मेरे स्कूल की कहानी है,
मेरे स्कूल की कहानी है।
Comments