उस रोज़ उस एक पल से,
मैंने खुद को पीछे छोड़ दिया,
जब से मैं इस ज़माने के साथ चला।
कभी खुद को ना मिल सका,
सबकी बराबरी की होड़ में,
खुद के साथ ना खड़ा रहा।
शायद ज़माने के साथ नहीं,
वक़्त के साथ चलना था,
या शायद कहीं रुक जाते,
और ठेहराव की अहमियत को समझते।
उस पल मुझे खुद की जरूरत थी,
और मैं दूसरों से मदद माँगता रहा,
मैं किसी के साथ के लिए तरसता रहा,
और खुद के लिए कभी ना रुका।
एक हादसा हुआ था मेरे साथ,
और मुझे एहसास भी नहीं,
हादसा था खुद को खोने का,
खुद को त्यागना।
मैं हादसे का कारण ढूँढता रहा,
और सभी को कोस्ता रहा,
जब गुनेहगार का पता चला,
खुद को ही कारण पाया।
तब ना वक़्त रहा,
और ना ही रहा साथ ज़माना,
रहा तो सिर्फ पछतावा,
की एक उम्र गुजारली मैंने,
खुद को खुद से जुदा किये।
और आखिर में इच्छा रही तो सिर्फ एक,
उस पल को बदलने की,
जब मैंने खुद को पीछे छोड़ था,
जब मैंने खुद को पीछे छोड़ था।
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