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  • Jhanak Chaurasiya

गन्तव्य

अर्थात कोई लक्ष्य जिसे आप पाना चाहो

जहाँ तक हर हाल में जाना चाहो

जहाँ पहुँच कर मिले वो संतुष्टि

जैसे सब कुछ जीत लिया हो ऐसी ख़ुशी|


गन्तव्य की खोज बड़ी भारी है

वहाँ पहुँचने के लिए ना जाने कितनी लड़ाईयाँ सबने हारी है

जो पहुँचा है सबने ये जाना है

नहीं आसान है ये खेल की एक आग का दरिया है और डूब के जाना है|


हर किसी के लिए इसके मायने अलग है

कोई गरीब जब दो वक्त की रोटी कमा ले

बचे हुए पैसो से अपने बूढ़े बाप की दवा ले,

फिर अपने बच्चो को स्कूल भेज कर भी थोड़े रुपए जमा ले उसके लिए वही उसका गंतव्य


जो रोज़ सुबह को लड़ती है

अपनी अवाज़ उठाती है

कि बेटी उसकी कर सके पढ़ाई

बस इतनी है उसकी लड़ाई

वो माँ तब जीत जाती है

जब बेटी अव्वल आती है|


वो बाप जो शीश झुकाए

लड़के के घर वालो के आगे खड़ा है

ज़्यादा कुछ नहीं जनाब, शायद दहेज का कुछ लफड़ा है

कुछ रूपयो की कमी है शायद

इसलिए ज़मीन पर पगड़ी है शायद

पर जब बेटी अवाज़ उठाती है

तोड़ के वो गठबंधन झूठा

जो पिता की इज्ज़त को किसी मोहताज़ बनाती है

जब मंडप से वो बढ़ती है

अपने गंतव्य की तरफ ही तो वो चलती है।

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