कागज़ की कश्ती थी,
नदी का किनारा था,
झूमती मस्ती थी और
हर दिन सुहाना था,
कहाँ आ गए हम इस समझदारी के दलदल में,
वो हमारा घर ही कितना प्यारा था।
कुछ सपनों के खातिर हम घर छोड़ आए,
कुछ पाने के खातिर हम अपनों को छोड़ आए।
निकले घर से तो समझ आया
क्यों भगवान ने माँ-बाप को बनाया,
अब ना खाने में नखरे है, ना खेलने के लिए बहाने,
ना पापा की डाँट है,
ना माँ का दुलार,
और न भाई बहनों से टकरार।
लगता है हम बड़े हो गए,
जब बाहर निकले तो बचपन भी पीछे छोड़ आए ,
जहाँ पहले अपनों के साथ समय का पता नहीं चलता था,
अब अपनों के साथ समय बिताने का समय नहीं मिलता,
जिन त्योहारों का इंतज़ार रहता था,
अब कब आकर चले जाते हैं पता भी नहीं चलता।
अब तो मानो सुकून की नींद भी नहीं आती,
बस थककर सो जाया करते हैं,
एक बार जो हम घर छोड़ आए,
फिर दोबारा सुकून से घर न जा पाए।
मैं अब घर जाना चाहती हूंँ,
अपनो के साथ रहना चाहती हूंँ,
माँ से सब संभालना और
पापा से जिम्मेदारियाँ,
निभाना सीखना चाहती हूंँ,
मैं वो ज़िंदगी दुबारा चाहती हूंँ,
हाँ, मैं अपने घर जाना चाहती हूंँ।
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