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मैं खुद एक कविता हूँ, एक किस्सा हूँ

Darshit Singh

मैं हर वक़्त औरों में,

अपनी कविता को खोजता रहा,

कभी खुद को हर्फ़ भर भी ना पढ़ा,

जो खुद को थोड़ा बेहतर समझा,

एक असीम गहराई को समेटे,

विचारों और सवालों का समुद्र पाया।


समुद्र जिसकी हर लहर,

मेरे वजूद पर सवाल करती,

जो हर बार मेरे ख्वाबों की कश्ती को किनारे पर लाती,

ख्वाब जिनमें मैं जीता हूँ,

ख्वाब जिनमें मैं आज़ाद हूँ।


जो सच और जूठ की दहलीज से कोसों दूर है,

जहाँ सही और गलत का कोई नियम नहीं,

मैं हर बार खुद की तलाश के निकलता,

हर बार खुद को पहले से अलग पाता हूँ।


मैं अपने सवालों का जवाब खोजता,

खोजते खोजते नई राहों पर निकलता,

कहाँ तक चलना है ये नहीं पता,

नहीं ज़रूरी हर बार मंजिल का होना पता,

पर मुकाम की तलाश में,

खुद को खोना भी तो सही नहीं,

फिर क्यों मैं लक्षय की खोज में,

खुद को पीछे छोड़ता हूँ।


यूँ हर बार खुद को तोड़ना भी ज़रूरी नहीं,

जरूरी है मंज़िल से पहले खुद को पाना

खुद अगर हमसफर बन जाय

तो मंजिल इतनी भी दूर नहीं।


हर्फ भर ही सही पर शुरुआत तो करूँ,

मैं खुद एक कविता हूँ, एक किस्सा हूँ,

इस किस्से को अंजाम तो दूँ।


- दर्शित सिंह चौहान


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