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Soumya

मैं तुम्हारे साथ हूँ

सुनो...

हां तुम ही..

आजकल परेशान सी रहती हो,

आपनो के बीच अंजान सी रहती हो...

अच्छे भले लम्हो को बिगाड़, फिर खुद ही को कोसती हो..


लोगो के शब्दों तोड़ती, मोड़ती, सोचती फिर उसी से बिकरती हो

खुश रहना तुम भूल चुकी, खुद को खुद से बस अलग कर रही...

सांझा सांझा कर बस घुट रही हो


भूल रही तुम , मैं तो हर पल तुम्हारे साथ थी ना,

जानती हूं तुम्हें परिवर्तन पसंद नहीं

पर तुम्हारे हर बदलाव में तो मैं तुम्हारे पास थी ना..

तुम को लगता है न, तुमसे किसी को फ़र्क नहीं,

एक बार खुदकी नज़र आईने में डाल और देख तो सही

तुझे यू टूटता देख , मैं हार जाती हूं खुद से ही..

तो मान...ये कविता मेरा एक विश्वास है...

तुझे जो झंझोर रहा, उसे ख़तम कर, आगे बढ़ने का एक प्रयास है


कोशिश कर रही हूं तुम्हें तुमसे बचाने की

तुम्हारे अंदर बचपन की वो बेफिक्री वापस लाने की

जिस मासूमियत का तुम ही ने कत्ल किया है..

उसे भुलाने की..


जिस समंदर में तुम डूब रही

कोशिश है मेरी बस उसमे तुम्हें सांस लेना सिखाने की...

बहुत यथार्थवादी बन कर रह लिया है तुमने,

कोशिश है मेरी तुम्हें वापस सपनों की दुनिया पहुंचने की

जैसा चांद अपनाता है अपने दागो को

कोशिश है मेरी तुम्हें तुम ही से प्यार करवाने की


आसान नहीं है...

आसान नहीं वापस तुमको तुमसे मिलवाना

बता देती हूं... हारोगी शायद तुम कई बार अभी

इतने साल से जो टूटा छोड़ दिया है खुदको

वापस मिलने में उसे लगेगी कुछ देर अभी


पर भरोसा रख, मैं हूं तेरे साथ

कोई तुझे देखे या ना देखे..

तू मेरी आंखों में हमेशा है

मैं देखती हूं तुझे,

जब तू किसी को देख शांत पड़ जाती है

जब तू परीक्षा से पहले मन के अंदर भूचाल लाती है...

जब कोई गाने को तू बिना रोये सुन नहीं पाती है

जब तू अपने आसलफलताओँ से खुदको यू ही नाप जाती है..

जब तू दूसरों को इतना समझने लगती है कि खुदके के लिए कुछ बचता ही नहीं

समझ , दूसरों के लिए हीरो बनते-बनते तू खुदकी विलन बन जाती है....

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