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समाज के बंद दरवाज़े

Darshit Singh

समाज के इन बंद दरवाजों,

की आड़ में सब कुछ हो जाता है,

पहले पीटा जाता है,

फिर मूँह दबोचा जाता है,

इन्सानियत को परे रख,

हैवानियत का स्वरूप होता है


किसी के जिस्म की ख्वाहिश में,

अपनी ही रूह को मार दिया जाता है,

किसी के कोमल हाथों को दबोच कर,

उसकी चीखों पर हँसा जाता है,

खुद के मर्द होने का प्रमाण देकर,

हवस का काला चेहरा दिखाता है।


किसी को निर्वस्त्र कर,

उसपर हक जमाया जाता है,

माँ की ममता, बहन का दुलार,

और पत्नी का प्यार भुला,

एक इन्सान दरिंदा बनता है।


खून से सने उस शरीर को छोड़,

दरिंदा फिर लौट जाता है,

समाज के इन बंद दरवाजों की आड़ में,

सब कुछ हो जाता है।


फिर उस लड़की के शरीर से

राजनीति खेली जाती है,

किसी को दलित, किसी को हिन्दू तो

किसी को मुस्लिम में बांटा जाता है।


दर्द तो सबका एक होता है,

आत्मा का वास शरीर में कहाँ होता है,

एक इन्साफ की आस होती है सभी को,

फिर अलग-अलग क्यों बाटाँ जाता है।


इन्साफ भी तो महीला की उम्र से होता है..

जबकी दर्द सबका एक होता है,

तो सजा क्यों सभी दरिंदों को एक नहीं होती..

क्यों सभी को फाँसी नहीं होती

समाज के इन बंद दरवाजों

की आड़ में सब कुछ हो जाता है।



सभी मर्द एक जैसे नहीं होते,

मगर ऐसे दरिंदे इन्सान ही नहीं होते,

फिर क्यों सभी आदमियों को,

इन दरिन्दों के समान समझते हो।


मनुष्य यौनि में अर्जुन भी जन्मे थे

और दुशासन भी,

'फर्क तो उनके विचारों में बसा था,

अधर्म का कोई धर्म नहीं होता,

तो क्यों इन दरिन्दों को धर्म से जोड़ते हो।


क्यों सभी आदमियों को

इन दरिन्दों के बराबर रखते हो,

अधर्म की कोई उम्र नहीं होती,

फिर इन दरिन्दों को उम्र अनुसार क्यों सजा देते हो, क्यों इन दरिंदों को फाँसी नहीं होती।


समाज के इन बंद दरवाजों

की आड़ में सब कुछ हो जाता है।

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